भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समय की नब्ज / वंशी माहेश्वरी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:20, 31 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वंशी माहेश्वरी |संग्रह= }} <Poem> जिधर से निकलते हैं व...)
जिधर से निकलते हैं वे
उधर हो जाती है उतनी जगह बंजर
फूल छूते ही
मुरझा जाते हैं
ख़ुशबू उड़ जाती है तुरन्त
बहती नदी में अचानक्सूखा आ गिरे
उतर जाता है पानी नदी का
उन बातों में उनकी
कोई दिलचस्पी नहीं होती
जिन बातों में
कोमल सुबह के होंठों पर फ़ैली रक्तिम आभा उतरती है
आहिस्ते-आहिस्ते
आज से अधिक
कल की आँखों में डूबी स्मृति को बचाए वे
जर्जरित खोजी नक्शा
अपाहिज इतिहास को उठा लाते हैं
रक्तरंजित नक़्शे में
सब कुछ था
सिर्फ़ समय की नब्ज रुकी थी।