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लिखने वाले की गलती से / गिरिराज किराडू
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जीवन को जिस कहानी की तरह सुनाया गया है उसमें दुख के दो उभार हैं जो उस कहानी को लिखना शुरू करते ही कहीं और खिसक जाते हैं
जैसे रेतघड़ी में बंद रेत की छोटी-सी ढेरी दूसरे हिस्से को इस तरह भरने लगे कि जो छोटी-सी ढेरी रात थी वही अब सुबह की तरह बिखरी है
और जो कण नींद लेने के समय से गिरती बूंद था वही अब जागने के समय से उलझती वह नदी है जिसके किनारे होना चाहिए था वह घर जो
अब लिखने वाले की गलती से गंगा किनारे है जहाँ लहरों ने तट पर ला पटका है तुम्हारा शव और तुम्हें यह गवाही देनी है कि तुम अपने शव
को नहीं पहचानते