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सुन्दर और नश्वर / ध्रुव शुक्ल
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पत्तों की तरह
नहीं झर रहा है दुःख
कोंपलों की तरह
नहीं फूट रहा है सुख
फूलों की तरह
नहीं खिल रही है ख़ुशी
लदते जा रहे हैं फलों से
यह उनका संचय नहीं
भरते जा रहे हैं घोंसलों से
यह उनकी दया नहीं
घनी हो रही है छाया
यह उनकी कृपा नहीं
आपस में लिपट रही हैं डालियाँ
यह उनका परिणय नहीं
वे भीग रहे हैं
गिर रही हैं उन पर बिजलियाँ
फिर झर रही है बर्फ़
वे झुलस रहे हैं
जम रही है उन पर धूल
पकड़े खड़े हैं माटी को
उखड़ रहे हैं
तो मिलते जा रहे है उसी में
वे कुछ नहीं करते
अपने आप प्रकट होता है उनसे
सुन्दर और नश्वर।