भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रेत में कलाकार / श्रीप्रकाश शुक्ल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:13, 21 अप्रैल 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीप्रकाश शुक्ल }} <poem> बालू के कण कण साथ ले चलो उड...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

{KKGlobal}}

बालू के कण कण साथ ले चलो उड़ जा हारिल की नाईं
सुबह हुई अब सपने छूटे उठ जा हरकारे की ठाईं।

ठोक पीटकर आकृति दे दो बांधो नदी नाव की खाईं
जग जीतो सब लहरें गिन लो कर लो तट को वश में साईं ।

तेरे हाथों में है ताकत बढ़ो सृजन पथ माथ न दो
तेरी मुटठी में दुनिया है बाधो हाथ विराम न दो ।

बालू गंगा का स्वरुप है गंगा क्या इतनी-सी, पर है
बालू बालू में प्रवाह को किसने धारा दी, जी भर है ।

लेाग रहेंगे आते-जाते तन भर तुझको देखेंगे
उठते-गिरते जो संभलेंगे मन भर तुमको भेटेंगें ।

इस या उस की बात नहीं है हर आकृति में तेरा बल है
जो दुनिया से चलकर जाता तेरी नज़रों की हलचल है ।


रचनाकाल : 12.03.2008