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रेत में कलाकार / श्रीप्रकाश शुक्ल
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बालू के कण कण साथ ले चलो उड़ जा हारिल की नाईं
सुबह हुई अब सपने छूटे उठ जा हरकारे की ठाईं।
ठोक पीटकर आकृति दे दो बांधो नदी नाव की खाईं
जग जीतो सब लहरें गिन लो कर लो तट को वश में साईं ।
तेरे हाथों में है ताकत बढ़ो सृजन पथ माथ न दो
तेरी मुटठी में दुनिया है बाधो हाथ विराम न दो ।
बालू गंगा का स्वरुप है गंगा क्या इतनी-सी, पर है
बालू बालू में प्रवाह को किसने धारा दी, जी भर है ।
लेाग रहेंगे आते-जाते तन भर तुझको देखेंगे
उठते-गिरते जो संभलेंगे मन भर तुमको भेटेंगें ।
इस या उस की बात नहीं है हर आकृति में तेरा बल है
जो दुनिया से चलकर जाता तेरी नज़रों की हलचल है ।
रचनाकाल : 12.03.2008