रेत झरझर / श्रीप्रकाश शुक्ल
रेत झरझर बह रही है
नदी महमह कर रही है
धार पुलकित
धाह देती
फूटने को आकुल है
किया जो तनिक-सा स्पर्श
रोमछिद्र धधक रहे हैं
अंसख्य मूर्तियाँ उभर रही हैं
एक-एक शिलाखण्ड टूट रहे हैं
एक-एक कर प्रचलित आकृतियाँ भहरा रही हैं
और बंजर खण्डहर कुछ-कुछ बोलने लगते हैं
नई-नई आकृतियों के साथ
नदी रुक गई है
रुक नहीं बस झुक गई है
वाष्प बनकर उड़ रही है
अग्निज्वाल धधक रही है
रेत झरझर बह रही है ।
यह किसका कर स्पर्शर है कि धार उर्ध्वाधर है
क्षितिज टूट कर छिटक रही है
सब कुछ उभरने को बेताब है
यह किसकी लय है कि शमशान भी सुनसान है
कोई भी तट खाली नहीं है
किसी नाव में कोई जगह नहीं है
कुछ भी कही भी रुकने को तैयार नहीं है
यह किसका आलाप है कि मध्य को कोई महत्व नहीं देता
एक क्षण भी
एक कण भी रुकने को तैयार नहीं है
सब के सब दु्रत में चले जा रहे हैं ।
क्या कभी इतनी हलचल को पचा पाऊंगा
जेा पचा भी पाया तो क्या बचा भी पाऊंगा।
जो बचा भी पाया
तो कैसे बांध पाऊंगा।
आज के इस क्षण को
जिसमें हर कण कुछ कहने को बेताब है-
कूचियाँ ही कूचियाँ
बस आब हैं
आफ़ताब हैं !
रचनाकाल : 19.01.2008