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लिए लुकाठी हाथ / ऋषभ देव शर्मा

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हाथ में लेकर लुकाठी
वह खडा़ है,
और हम दुबके हुए
अपने घरों में!


वह उठा तूफान जैसा
ध्वस्त दरवाज़े हुए,
खिड़कियाँ हिलने लगीं,
दीवार हर गिरने लगी,
काँपती छत की दरारें
साफ सच दिखने लगीं।

जल उठे छप्पर
भभकते दीप की लौ से,
थूनियाँ ढहने लगीं,
गल गए शहतीर भी।

क्यों हुआ, कैसे हुआ
ऐसा करिश्मा!

सत्य की लेकर लुकाठी
वह खडा़ बाजार में;
पाखंड ने
चिनगारियाँ महसूस कीं
अपने परों में!

वह लुकाठी को घुमाता
चक्र जैसा जब कभी,
डोलते आसन महाप्रभुओं के तभी;

मूर्तियाँ खंडित
विखंडित बुर्जियाँ सब,
घंटियाँ हैं मौन;
मीनारें प्रकंपित;
जोर से नारे लगाती
कुर्सियों के कंठ
हकलाए हुए हैं।
कुछ भिखारी,
कुछ कमेरे ,
कुछ लुटे जन,
कुछ पिटे जन
कुछ पंखुड़ी,
कुछ फूल लेकर
कुछ तपन,
कुछ तूल लेकर
गीत गाते,
हाँका लगाते
चौक में, बाज़ार में छाए हुए हैं-
सत्य का उत्सव मनाते
लपलपाते
हण्टरों में!

गीत कैसे?
कौन सा हाँका?
सुनाई कुछ नहीं देता हमें तो!

हम सुनें क्यों?
           सुनें भी कैसे?
हमारे कान तो
कौवे काटकर ले जा चुके कब के
पितर के लोक में।
पीढ़ियाँ पैदा हुईं- गूँगी:
धरा की कोख में।
बोलते हम
जो हमारे प्रभु बोलते हैं
और सुनते कुछ नहीं।

प्रभु भी नहीं सुनते!

सभी खुदा बहरे होते हैं
इसमें कोई झूठ नहीं,
सच कहने वाले कबीर को
लेकिन कोई छूट नहीं।

बो रहा है आग वह
युग के स्वरों में!
[और हम दुबके हुए
अपने घरों में!]