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और तब धरती हिलती है / ऋषभ देव शर्मा

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सुना था बचपन में :
धरती टिकी है गौमाता के सींग पर,
जब बोझ से थक जाता है एक सींग
तो गौमाता सींग बदलती है
और तब धरती हिलती है।


एक बार कहीं पढा़ था :
भीमकाय कछुए की पीठ पर
टिका है धरती का गोला,
कभी-कभार जब हरकत करता है कछुआ
पीठ में खुजली होने पर
तो धरती हिलती है।


बाद में देखा किसी पौराणिक नाटक में :
हज़ार फणवाले शेषनाग ने
         धारण किया है धरती को,
काल की बीन बजती है
तो थिरकती है शेषनाग की पूँछ
झूमते हैं हज़ार फण
और तब धरती हिलती है।


भू-गर्भ के जानकारों ने बताया :
धरती के पेट में हैं
प्लेटें ही प्लेटें
         पर्त दर पर्त


कोई पर्त खिसकती है
कोई प्लेट सरकती है
तो धरती हिलती है।


अर्थशास्त्र की किताब कहती है :
जब मनुष्य ज्यादती करता है
तो प्रकृति विद्रोह करती है
और तब धरती हिलती है।


धर्म के ठेकेदारों ने घोषणा की :
जब-जब धर्म की हानि होती है
जब-जब अधर्म बढ़ता है
जब-जब भरता है पाप का घड़ा
बढ़ जाते हैं अन्याय और अनाचार
तो धरती हिलती है।


हिलती है धरती
पड़ती है दरारें
मटियामेट हो जाती हैं दस-दस मंजिलें
भू-गर्भ में समा जाती हैं हजारोहजार झोंपडि़याँ।


बिंध जाती हैं स्कूली बच्चों की आँतें
गौमाता के सींग से।


कछुए की पीठ पर गिरकर
लहूलुहान हो जाते हैं
गर्भवती महिलाओं के
नए जीवन की संभावनाओं से भरे हुए उदर।


शेषनाग के विषदंश से नीला पड़ जाता है
खेतों और कारखानों में
काम करते आदमी का खून।
प्लेटों की तरह टूटती हैं
अट्टालिकाएँ
और क्षत-विक्षत हो जाती है
पृथ्वी की हरी-भरी काया।


काले साये-सी मौत,
दौड़ रही है हर पल
हर दिशा से घेर कर
          आदमी के प्राण को।


इतनी सारी मौत
आदमी अकेला।


सृष्टि के आरंभ से
चली आती है यह दौड़,
भूकंप लीलते हैं बार-बार सभ्यताओं को
और अट्टहास करता है कालभैरव
तांडव नृत्य के बीच


पर


हर बार कहीं
ढेरोढेर मलबे के तले
हिलता है एक हाथ
और उग आती हैं पाँच उँगलियाँ
साँस लेती हुई
सारे मलबे को चीरकर
चुनौती देती हुई!