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ढंग से विदाई भी नहीं / ताहा मुहम्मद अली
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हम तो रोए नहीं बिल्कुल
विदा होते हुए
क्योंकि न तो थी हमारे पास फ़ुरसत
और न ही थे आँसू-
ढंग से हमारी विदाई भी नहीं हुई।
दूर जा रहे थे हम
पर हमें इल्म नहीं था
कि हमारा यह बिछुड़ना है सदा के लिए-
फिर कहाँ से बहती ऐसे में
हमारे आँसुओं की धार ?
बिछोह की वह पूरी रात थी और हम जगे नहीं रहे
(और न बेहोशी में सो ही गए)
जिस रात हम बिछुड़ रहे थे सदा-सदा के लिए।
उस रात
न तो अंधेरा था
न थी रोशनी
और न निखरा चांद ही।
उस रात
हमसे बिछुड़ गया हमारा सितारा-
चिराग़ ने किया हमारे सामने स्वांग
रतजगे का-
ऐसे में सजाते कहाँ से
अभियान
जागरण का?