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गुजर गया एक और दिन / उमाकांत मालवीय

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गुजर गया एक और दिन,

रोज की तरह ।


चुगली औ’ कोरी तारीफ़,

बस यही किया ।

जोड़े हैं काफिये-रदीफ़

कुछ नहीं किया ।

तौबा कर आज फिर हुई,

झूठ से सुलह ।


याद रहा महज नून-तेल,

और कुछ नहीं

अफसर के सामने दलेल,

नित्य क्रम यही

शब्द बचे, अर्थ खो गये,

ज्यों मिलन-विरह ।


रह गया न कोई अहसास

क्या बुरा-भला

छाँछ पर न कोई विश्वास

दूध का जला


कोल्हू की परिधि फाइलें

मेज की सतह ।