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इसी तरह / सुनील गंगोपाध्याय

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हमारे बड़े विस्मयकारी दुःख हैं
हमारे जीवन में हैं कई कड़वी ख़ुशियाँ
माह में दो-एक बार है हमारी मौत
हम लोग थोड़ा-सा मरकर फिर जी उठते हैं
हम लोग अगोचर प्रेम के लिए कंगाल होकर
प्रत्यक्ष प्रेम को अस्वीकार कर देते हैं
हम सार्थकता के नाम पर एक व्यर्थता के पीछे-पीछे
ख़रीद लेते हैं दुःख भरे सुख,
हम लोग धरती को छोड़कर उठ जाते हैं दसवीं मंज़िल पर
फिर धरती के लिए हाहाकार करते हैं
हम लोग प्रतिवाद में दाँत पीसकर अगले ही क्षण
दिखाते हैं मुस्कराते चेहरों के मुखौटे
प्रताड़ित मनुष्यों के लिए हम लोग गहरी साँस छोड़कर
दिन-प्रतिदिन प्रताड़ितों की संख्या और बढ़ा लेते हैं
हम जागरण के भीतर सोते हैं और
जागे रहते हैं स्वप्न में
हम हारते-हारते बचे रहते हैं और जयी को धिक्कारते हैं
हर पल लगता है कि इस तरह नहीं, इस तरह नहीं
कुछ और, जीवित रहना किसी और तरह से
फिर भी इसी तरह असमाप्त नदी की भाँति
डोलते-डोलते आगे सरकता रहता है जीवन ....!!


मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी