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उन्मथित / नवनीता देवसेन

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कौन कहता है
तुम्हारी तरह मैं भी बरबाद हो गई हूँ?
जिसे प्यार करते हो उसे छोड़कर जाना होगा!
इसीलिए अशांति है“ -- इस नितांत सरल-से वाक्य-बाण से
बिना किसी क्लेश के टूटती-छलनी होती है अंतरात्मा
या फिर झराती है ख़़ून
टुकड़े-टुकड़े करती है शिरा और धमनियाँ
या फिर सीधे फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर देती है सारी पेशियाँ
अन्यथा पीस कर अस्थियाँ बदल देती है
शून्य सफ़ेद धूसर धूल में
लेकिन क्या इस वजह से मैं बिना लड़े
बरबाद हो सकती हूँ?

इतना सधा हुआ राधा-सा शरीर
कौन डुला सकता है तमाल की डाल पर
किसमें है इतनी हिम्मत ?
तुम्हारे भद्र (?) ईश्वर
मेरे संसार में हमेशा से किसी और प्रतिश्रुति से बंधे हुए हैं।
जन्मलग्न में ईश्वर ने मुझे वचन दिया था:
”तुम्हारी ख़ुशियां छीन ले, इतनी ताक़त मैंने नहीं दी है संसार में“
अब उसी को बुलाकर कहूंगी:
”समझ लो कौड़ी की नाव डूबने-डूबने को है
ख़ुशबू से भर दो पालें।
कम-अज़-कम वे देख तो लें
मैं किसके भरोसे लड़ रही हूं “


मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी