भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गाँव से घर निकलना है / यश मालवीय
Kavita Kosh से
पूर्णिमा वर्मन (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 11:55, 28 अगस्त 2006 का अवतरण
कवि: यश मालवीय
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* कुछ न होगा तैश से
या सिर्फ़ तेवर से,
चल रही है, प्यास की
बातें समन्दर से ।
रोशनी के काफ़िले भी
भ्रम सिरजते हैं,
स्वर आगर ख़ामोश हो तो
और बजते हैं,
अब निकलना ही पड़ेगा,
गाँव से- घर से
एक सी शुभचिंतकों की
शक्ल लगती है,
रात सोती है
हमारी नींद जगती है,
जानिए तो सत्य
भीतर और बाहर से ।
जोहती है बाट आँखें
घाव बहता है,
हर कथानक आदमी की
बात कहता है,
किसलिए सिर भाटिए
दिन- रात पत्थर से ।