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गाँव से घर निकलना है / यश मालवीय

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कवि: यश मालवीय

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* कुछ न होगा तैश से

या सिर्फ़ तेवर से,

चल रही है, प्यास की

बातें समन्दर से ।



रोशनी के काफ़िले भी

भ्रम सिरजते हैं,

स्वर आगर ख़ामोश हो तो

और बजते हैं,



अब निकलना ही पड़ेगा,

गाँव से- घर से



एक सी शुभचिंतकों की

शक्ल लगती है,

रात सोती है

हमारी नींद जगती है,



जानिए तो सत्य

भीतर और बाहर से ।



जोहती है बाट आँखें

घाव बहता है,

हर कथानक आदमी की

बात कहता है,

किसलिए सिर भाटिए

दिन- रात पत्थर से ।