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गाँव से घर निकलना है / यश मालवीय
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पूर्णिमा वर्मन (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 12:00, 28 अगस्त 2006 का अवतरण
कवि: यश मालवीय
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* कुछ न होगा तैश से या सिर्फ़ तेवर से,
चल रही है, प्यास की बातें समन्दर से ।
रोशनी के काफ़िले भी भ्रम सिरजते हैं,
स्वर आगर ख़ामोश हो तो और बजते हैं,
अब निकलना ही पड़ेगा, गाँव से- घर से
एक सी शुभचिंतकों की शक्ल लगती है,
रात सोती है हमारी नींद जगती है,
जानिए तो सत्य भीतर और बाहर से ।
जोहती है बाट आँखें घाव बहता है,
हर कथानक आदमी की बात कहता है,
किसलिए सिर भाटिए दिन- रात पत्थर से ।