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उजियारे के कतरे / यश मालवीय

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कवि: यश मालवीय

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* लोग कि अपने सिमटेपन में बिखरे-बिखरे हैं,

राजमार्ग भी, पगडंडी से ज्यादा संकरे हैं ।



हर उपसर्ग हाथ मलता है प्रत्यय झूठे हैं,

पता नहीं हैं, औषधियों को दर्द अनूठे हैं,

आँखें मलते हुए सबेरे केवल अखरे हैं ।



पेड़ धुएं का लहराता है अँधियारों जैसा,

है भविष्य भी बीते दिन के गलियारों जैसा

आँखों निचुड़ रहे से उजियारों के कतरे हैं ।



उन्हें उठाते जो जग से उठ जाया करते हैं,

देख मज़ारों को हम शीश झुकाया करते हैं,

सही बात कहने के सुख के अपने ख़तरे हैं ।