भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बीत चुकी रात फिलहाल / लाल्टू

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:10, 4 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लाल्टू |संग्रह= }} <Poem> बीत चुकी रात फिलहाल अंधेरे स...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बीत चुकी रात फिलहाल
अंधेरे से निकला हूँ
रोशनी है पठाने खाँ के गायन-सी
गुलाम फरीद के बोल पर नाच रहे हैं पत्ते
मन में मोर पसार रहा पंख

कब बीतेंगी रातें
मैं नहीं निशाचर मैं जीवन का प्यासा
ढूँढता हूँ सोते जीवन के
प्यार की बूँदें

रात का थका
सुबह समेट रहा हूँ बाँहें फैलाए
सूर्य नमस्कार नहीं सूरज को पास लाने की
मुद्राएँ हैं मेरे खयालों में
रूखा ही सही जीभ गर्म स्वाद चाहती है

अक्षर-अक्षर जीवन बुनता हूँ
मात्राएँ गढ़ता हूँ ध्वनियाँ बाँधता हूँ
क़दम-क़दम चलता हूँ
काल से होड़ के सूत्र सीखता हूँ
मैं नहीं निशाचर मैं जीवन का प्यासा
चीखता हूँ पठाने खाँ फरीद बनता हूँ
क्या हाल सुणावाँ दिल दा
कोई मरहम ......