भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं ज़रूर रोता / अभिज्ञात

Kavita Kosh से
Abhigyat (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:42, 6 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: मैं ज़रूर रोता अगर वह कायम रहती अपने कहे पर और उसके अन्दर-बाहर रह ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं ज़रूर रोता अगर वह कायम रहती अपने कहे पर और उसके अन्दर-बाहर रह जाता वह मकान जिसे वह अपना जन्नत कहती है

मैंने देखा, उस मकान के आगे उग आयी सहसा एक सड़क जिससे होकर आयेंगे उसके आत्मीय स्वजन उसकी सखी सहेलियां उनके बच्चे, डाकिया, अज़नबी और वह भिखारी भी जो बुढ़ापे की जर्जर अवस्था में मुश्किल से चल पाता था

घर के आंगन में उग आये फूल जिससे महकता है पास पड़ोस तक घर में ज़गह है मुर्गियों के लिए गाय के लिए और मेहमानों के ठहरने के लिए भी धीरे-धीरे तब्दील हो गया उसका घर एक पूरे संसार में

मैं ज़रूर रोता अगर उसका मकान सिर्फ़ उसका घर होता।