भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक पल से एक पल का / विजय वाते

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:33, 7 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय वाते |संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते }} <poem> एक पल ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक पल से एक पल का सिलसिला है ज़िन्दगी।
हादसा फिर हादसा, किर हादसा है ज़िन्दगी।

बन्द कमरे में छिपी है स्याह बिल्ली आस की,
इस अन्धेरे में उसी को है ढूंढना है ज़िन्दगी।

चिल-चिलाती धूप में वीरान रेगिस्तान में,
दौड़ते हिरनों का बेकल काफ़िला है ज़िन्दगी।

कल के बारे में ज्यादा सोचना अच्छा नहीं,
चाय के कप से लबों का फ़ासला है ज़िन्दगी।

इस जनम में ही नहीं, अब तक के जन्मों में 'विजय'
क्या किया है आपने, ये इत्तिला है ज़िन्दगी।