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बादल बरसै मूसलधार / प्रभाकर माचवे
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कवि: प्रभाकर माचवे
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बादल बरसै मूसलधार
चरवाहा आमों के नीचे खड़ा किसी को रहा पुकार
एक रस जीवन पावस अपरम्पार
मेघों का उस क्षितिजकूल तक पता न पाऊँ
कि कैसा घुल-मिल है संसार
-एक धुन्ध है प्यार...
बहना है
यह सुख कहना क्या
उठना-गिरना लहर-दोल पर
हिय की घुण्डी मुक्त खोल कर
पर उस दूर किसी नीलम-घाटी से यह क्या बारम्बार-
चमक-चमक उठता है ?
बिम्बित आँखों में अभिसार...
आज दूर के सम्मोहन ने यात्रामय कर डाला
बिखर गया वह संचित सुधि-धन जो युग-युग से पाला ।
पर यह निराकार आधार
कहाँ से सीटी बजा रहा है
बुला रहा है, पर बेकार-
यहाँ से छुट्टी रज़ा कहाँ है ?
गैयाँ चरती हैं उस पार
दूर धवीले चिन्ह मात्र हैं
जमना लहरै तज बन्ध-
बादल बरसै मूसलधार