भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नंगी औरत / रवीन्द्र दास

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:17, 11 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्र दास }} <poem> नंगी औरत भाग रही है बदहवास सरे-...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नंगी औरत
भाग रही है बदहवास
सरे-बाज़ार
बाजारू लोग तैयार न थे इस करिश्मे के लिए ।

ठगे-से लोग
भौचक्के हैं कि इतनी ख़ूबसूरत नग्न-काया
जीवित, गतिशील थिरकती हुई
देखने को इस तरह मिल जाएगी
सपने में भी सोचा न था।
माशा अल्लाह! क्या कटाव है!

सबकी आँखो से झाँकने लगा वहशी मर्द
किसी को ये फ़िक्र न हुई
कि वह गरीब
किस बेबसी में लाचार हुई नंगे-बदन
सरे-बाज़ार...

सबने देखा तराशा बदन सबने देखी
उसके नितम्बों की थिरकन
किसीने न देखी उसकी बेबसी
किसी ने न देखा
उसका चीरहरण करने वाले दुःशासन को
भले ही
बाद में होने वाले कान्फरंस में भीष्म की तरह
जताए अपनी लाचारी
करे अफ़सोस मानवता के पतन पर...

अभी भी भाग रही होगी कोई
नंगी औरत
इज्ज़त की परवाह किए बगैर
जीने की ख़ातिर ।