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वह एक / प्रभाकर माचवे

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कवि: प्रभाकर माचवे

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वह एक
मैला सा कुर्ता पहने बेच रहा अख़बार
"अरजुन, स्वराज, जन्मभूमि, आज, अधिकार-"

दो पैसे या कि चार-चार ।

कहता है वह पुकार
आज चीन-जापान लड़ाई,
कल हिटलर की चढाई,
और परसों श्री गाँघी का उपवास...
वह क्या समझता है राजनीति ? ख़ाक-धूल !
उसे क्या पता है यह फैला कहाँ तक है

मैला जीवन-दुकुल !

उस को न परवाह कौंगरेस नैया की पतवार-
वाम-पक्ष पै है या हराम पक्ष पै है,
वह जानता है महावार
तनखा साढ़े तीन कल्दार ।
उस को है जिन्ना, बोस,
हिटलर, पटेल, घोष,

ये सब बस निरे नाम
उस का तो फ़कत काम

चिल्लाना बार-बार

तीन मरे, दस घायल-
दंगा, बम फटे, या कल मर गये फ़लाँ-फ़लाँ ।
यों ही चला करता है दुनिया का दौरान
उसको न रंजो-ग़म उस को तो एक भान-

बेचना ये समाचार-

चाहे सम हो कि विषम ।

वह एक मशीन
जिस में इस दुनिया के गोले के प्रत्येक
कोने से आती जो खबरें हैं रंगीन श्री-हीन,
सब बन के अक्षर ढल जाती हैं, छप कर के जो निकलीं
लक्ष-लक्ष चक्षुओं से निगली गयीं वे और
बिक भी गयीं गली-गली में
कि चौबिस घंटो के बाद पुन: बासी
यह खड़-खड़-खड़
दैनिक की "रोटरी" की प्यास बड़ी संगीन...

वह एक !