भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपराध की इबारत / जगदीश गुप्त
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:28, 12 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |संग्रह= }} <Poem> अपराध यूँ ही नहीं बढ़त...)
अपराध यूँ ही नहीं बढ़ता है
हर बच्चा
बूढ़ों की आँखों में
अपराध की इबारत
साफ़-साफ़ पढ़ता है।
वह इबारत
पानी की तरह
सतह पर
हमें अपना चेहरा दिखती ऐ,
और जहाँ भी गड्ढे देखती है
ठहर-ठहर जाती है।
उसमें एक बहाव है
और एक खिंचाव भी।
यह इबारत हमारी कृतज्ञ है
कि हम उसे मिटाते नहीं।
क़ैदी की तरह
कितना भी छटपटाएँ
अपनेको
उसके घर से
मुक्त कर पाते नहीं।
समय की शिला पर
वरण-फूल नहीं
अब यही इबारत
लोहे की टाँकी से
लिख दी गई है,
ताकि जो भी इधर से गुज़रे
शर्म से मरे या न मरे
एक बार अपने को
अफ़लातून
ज़रूर अनुभव करे।