भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाहना जागी लगे खाँचा बनाने / नईम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:55, 12 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |संग्रह= }} Category:सानेट <poem> चाहना जागी लगे खाँचा...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चाहना जागी लगे खाँचा बनाने-
समय श्रम। दोनों लगे साँचा बनाने।

चाहता हूँ ढालना अनुभूतियों को
और प्राणों में बसे कुछ मोतियों को।
रूप, रंग, आकार की क्यों फ़िक्र पालूँ
चाहते हैं लोग असली ज्योतियों को।

सागरोमीना रहें गर सामने तो,
हम बहुत हैं। होश अपने थामने को-
मीरो ग़ालिब, निरालाओं से कहूँ क्या?
ज़माना आगे पड़ा है साधने को।

आज भाषा को मिला है समय गढ़ने,
चले हैं अक्षर हमें ये आज पढ़ने।
हम उन्हें वो बाँचने में लगे हमको-
प्रयासों से सीढ़ियाँ हम आज चढ़ने।