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अपनों से दूर चल पड़ी / तेजेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
अपनों से दूर चल पड़ी अपनों की चाह में
अन्जान कोई मिल गया, अन्जानी राह में
अन्जान होके भी मुझे अपना सा वो लगा
इन्सानियत बसती दिखी उसकी निगाह में
अपनों की बेरूख़ी से थी बेज़ार हो चली
करती हूं मुहब्बत उसे अब बेपनाह मैं
है दर्द मेरा दूर से ही बांट लेता वो
हूं उसकी इबादत का कर रही गुनाह मैं
वो राम कृष्ण है मेरा, है मेरा वली भी
आख़िर में उसके दिल में ही लूंगी पनाह मैं