धीवरगीत-1 / राधावल्लभ त्रिपाठी
मेरे आगे फैला है सागर
जिसको कुचल न पाए कोई
मैं भी हूँ अपने में एक सागर
जिसको कुचल न पाए कोई
मेरे आगे फैला है सागर
भरा-भरा रहता है जो
मैं भी अपने में हूँ भरा हुआ
टकराती हैं लहरें सागर की
सद परस्पर
मेरे भीतर ही टकराती हैं
लहरें भीतर-ही-भीतर
मैं रचता हूँ ख़ुद के भीतर लहरों का आलोड़न
मैं ही रचता हूँ सागर
फिर ख़ुद हो जाता हूँ सागर
सागर को समेटकर भीतर
या स्वयं समा जाता हूँ सागर के भीतर।
सागर में फैल गई चेतना
या चेतना में मेरे है सागर
यह संप्लव है दोनों का सम्मिश्रण
जिसमें भेद हुए स्थगित
सागर को मैं धारे हूँ
या सागर ने मुझको धार रखा है
जैसे एक बूंद में सागर है
और सागर में हैं बूंदें
सागर के ऊपर बुदबुद उठते हैं
और विलीन होते हैं
उठता है फेन
और विलीन होता है
बचा रहता है सागर
बचा रहता हूँ मैं।