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कहाँ तक ये फरेबे आरज़ू भी / नोमान शौक़

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कहाँ तक ये फरेबे-आरज़ू भी
दगा दे जाएगा अपना लहू भी

मुझे वो हर तरह आज़ाद करता
मिटा देता हिसारे-रंगो-बू भी

मुझे तो ज़ेहन दोजख सा मिला है
मगर क्या सोचता रहता है तू भी

मैं अपनी तेग को क्या मुँह दिखाता
अगर झुक कर मिला करता अदू भी

अगर तू मिल गया तो ठीक वरना
बिछड़ जाएगी तेरी जूस्तज़ु भी

ये किस बदरूह से पाला पड़ा है
अज़ीयत बन गई है आबरू भी