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मेरी ख़्वाहिश / फ़रीदे हसनज़ादे मोस्ताफ़ावी

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काश! मैं सर्दियों में जम जाती
जैसे जम जाता है पानी धरती पर बने छोटे-बड़े गड्ढों में-
कि चलते-चलते लोग ठिठक कर देखते नीचे
कैसी उभर आई हैं मेरी रूह में झुर्रियाँ
और टूटे हुए दिल में दरारें।

काश! मैं कभी कभार
दहल जाती धरती जैसे लेती है अंगड़ाई
और मुझे सम्भाले हुए तमाम खम्भे धराशाई हो जाते पलक झपकते
तब लोगों को समझ आता
मेरे दिल के तहखाने में कैसे कलपता है दुःख

काश! मैं उग पाती
हर सुबह सूरज की मानिन्द
और आलोकित कर देती
बर्फ़ से ढँके पर्वत और धरती
ताकि लोग कभी न सोच पाएँ
कि रहा जा सकता है प्यार की ललक के बग़ैर।


अंग्रेज़ी से अनुवाद: यादवेन्द्र पांडे