भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सोसनी दुकूलनि दुराये रूप रोसनी है / पद्माकर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:45, 31 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पद्माकर }}<poem> सोसनी दुकूलनि दुराये रूप रोसनी है , ...)
सोसनी दुकूलनि दुराये रूप रोसनी है ,
बूटेदार घाँघरी की घूमनि घुमाइ कै ।
कहैं पदमाकर त्यों उन्नत उरोजन पै,
तंग अंगिया है तनी तननि तनाइ कै ।
छज्जन की छाँह छवि छैल के मिले के हेतु.
छाजति छपा मैँ योँ छबीली छबि छाइ कै ।
ह्वै रही खरी है छरी फूलकी छरी सी छिपि,
साँकरी गली मे फूल पाँखुरी बिछाइ कै ।
पद्माकर का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मलहोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।