भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने जन्मदिन पर-2 / प्रेमचन्द गांधी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:01, 31 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमचन्द गांधी |संग्रह= }} <Poem> पीढ़ियाँ गुज़र गई...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पीढ़ियाँ गुज़र गईं हमारी
सूत कातते-कपड़ा बुनते

घुमाते रहे हम शताब्दियों तक चरखा
पर नहीं घूम पाया
हमारे जीवन का चरखा
पृथ्वी को लपेटने लायक
भले ही बुन लिया हमने कपड़ा
पर ख़ुद के लिए हमें कभी नहीं हो सका नसीब
चीथड़ों से ज़्यादा

हमारे ख़ून-पसीने की नमी पाकर
रूई बदल गई सूत में
हमारे कौशल से सूत ने
आकार लिया कपड़े का

हमीं ने बनाया रेशम
हमीं ने बनायी ढाका की मलमल
हमीं से सीखा गाँधी ने आज़ादी का मतलब
फिर पूरे देश ने जानी
बुनकर की अहमियत