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बुनकर-3 / प्रेमचन्द गांधी

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बुनकरों के इस गाँव में अब
बुजुर्ग भी भूल चुके हैं बुनने की कला
स्त्रियाँ भूल गयी हैं चरखा चलाना
चरखा चलाते हुए गीत गाना
बुनकरों का है यह गाँव
और कोई बुनकर नहीं है यहाँ

यहाँ झोपड़ों पर मौसमों की मार से
इस क़दर गल चुके हैं चरखे
कि अब ईंधन के लायक भी नहीं रहे और
चूल्हे की भेंट चढ़ चुका है करघा
चरखियाँ अब बच्चों के खिलौनों में भी नहीं रही

मानव सभ्यता की प्राचीनतम कला के
हुनरमंदों के इस गाँव में अब
शहर से आते हैं कपड़े
जैसे सूर्यग्रहण के दिन
धरती से देखा जाता है सूर्य
चन्द्रमा के प्रकाश में

चांद से रोशनी
माँगता हुआ सूरज है
बुनकरों का यह गाँव