भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
Tusharmj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:27, 3 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन }} खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों स...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से

जो कि रुक सकता नहीं मैं---


काम ऐसे कौन जिसको

छोड़ मैं सकता नहीं हूँ,

कौन ऐसा मुँह कि जिससे

मोड़ मैं सकता नहीं हूँ?

आज रिश्‍ता और नाता

जोड़ने का अर्थ क्‍या है?

श्रृंखला का कौन जिसको

तोड़ मैं सकता नहीं हूँ?

चाँद, सूरज भी पकड़

मुझको नहीं बिठला सकेंगे,

क्‍या प्रलोभन दे मुझे वे

एक पल बहला सकेंगे?

जब कि मेरा वश नही

मुझ पर रहा, किसका होगा?

खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से

जो कि रुक सकता नहीं मैं---


उठ रहा है शोर-गुल

जग में, जमाने में, सही है,

किंतु मुझको तो सुनाई

आज कुछ देता नहीं है,

कोकिलों, तुमको नई ऋतु

के नए नग़मे मुबारक,

और ही आवाज़ मेरे

वास्‍ते अब आ रही है;

स्‍वर्ग परियों के स्‍वरों के

भी लिए मैं आज बहरा,

गीत मेरा मौन सागर

में गया है डूब गहरा;

साँस भी थम जाए जिससे

साफ़ तुमको सुन सकूँ मै---

खींचतीं किन पीर-भींगे गायनों से

जो कि रुक सकता नहीं मैं---

खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से

जो कि रुक सकता नहीं मैं---


है समय किसको कि सोचे

बात वादों की, प्रणों की,

मान के, अपमान के,

अभिमान के बीते क्षणों की,

फूल यश के, शूल अपयश

के बिछा दो रास्‍ते में,

घाव का भय, चाह किसको

पंखुरी के चुंबनों की;

मैं बुझता हूँ पगों से

आज अंतर के अँगारे,

और वे सपने के जिनको

कवि करों ने थे सँवारे,

आज उनकी लाश पर मैं

पाँव धरता आ रहा हूँ---

खींचतीं किन मैन दृग से जलकणों से

जो कि रुक सकता नहीं मैं---

खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से

जो कि रुक सकता नहीं मैं---