भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पाँव धरे दुलही जिहि ठौर रहे / मतिराम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:46, 3 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मतिराम }} <poem> पाँव धरे दुलही जिहि ठौर रहे मतिराम त...)
पाँव धरे दुलही जिहि ठौर रहे मतिराम तहाँ दृग दीने ।
छोड़ि सखान के साथ को खेलिबो बैठि रहे घर ही रस भीने ।
साँझहि ते ललकैँ मन ही मन लालन योँ रस के बस लीने ।
लौनी सलौनी के अँगन नाह सुगौने की चूनरी टोने से कीने ।
मतिराम का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।