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मैं कुछ नहीं भूली / कविता वाचक्नवी
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सब याद है मुझे
हमारे आँगन का ‘नलका’
‘खुरे’ में बैठ
मौसी का बर्तन माँजना
डिब्बे में राख रख
इक जटा-सी हाथ पकड़।
काले हाथों पर
लकडि़यों के चूल्हे की
सारी कालिख...
याद है मुझे।
जाने कितने घरों में काम करती थी ‘मौसी’
मेरे मुँह ‘बर्तनोंवाली’ सुन
‘मौसी’ का गुस्सा
गुस्से में बड़-बड़
याद है मुझे।
फिर कभी मौसी कहना
नहीं भूले हम।
आज लगता है-
मैंने उसका दिल गल-घिसाया था।
पूस माघ की ठंडी रातें
‘मौसी’ के गले हाथ
सब याद है मुझे।
स्कूल के बाहर
छाबडी-सी ले
चूरन बेचता ‘मौसी’ का पति
आधी राह छोड़ चला गया ;
तीन-तीन बेटियों का ब्याह
सब याद है मुझे।
मुझे ब्याह की असीस
"जीती रह मेरी बच्ची"
‘मौसी’ का दुपट्टा
हाथ-पोंछते हाथ
सब याद है मुझे।