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वज्रपात / कविता वाचक्नवी
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वज्रपात
अपने घर का शिखर
गिरा है
कुनबे का आँगन है
सूना
साँझा अब कुछ
रहा ही नहीं
दाता तेरी दया माँगतीं।
किसके पास बैठ
रोएँगे
दिल के दुखडे़ कह
सोएँगे
कहाँ रखेंगे बोरी-बिस्तर
आँखें, आँसू भरे जागतीं
बेटी कौन दुलारेगा अब
बच्चों को चुमकारेगा अब
किससे जाकर गले मिलेंगे
निपट अकेला स्वयं भागतीं।