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अभिशाप / कविता वाचक्नवी

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अभिशाप

मैं
तुम्हें सरापती हूँ
खोल अपने केश
लेती हूँ प्रतिज्ञा
धूर्त शकुनि!
आज फिर से
आ गए
गांधार से तुम, झूठ!
बहकाने हमारे भीष्मवंशी
छल-बलों को।
फिर भले चौसर खिलाओ
शासकों को ;
किंतु मैं हूँ - अग्निगर्भा,
एक ही केवल
सुदर्शन-चक्र मेरे साथ होगा।
चीर देंगे
वीर, मेरे धीर
शत-शत अंध-असुरों को
अकेले
और रचना ही पडे़गा
अब महाभारत ;
उठे संधान करने
संधियाँ सब
भरतवंशी पुत्र अलबेले।