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ति-रंगा / कविता वाचक्नवी
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ति-रंगा
संधि की
पावन धवल रेखा
हमारी शांति का
उद्घोष करती
पर नहीं क्या ज्ञात तुमको
चक्र भी तो
पूर्वजों से
थातियों में ही मिला है,
शीश पर अंगार धरकर
आँख में है स्वप्न
धरती की फसल के,
हाथ में
हलधर सम्हाले
चक्र
हरियाली धरा की खोजते हैं,
और है यह चक्र भी वह
ले जिसे अभिमन्यु
जूझा था समर में,
है यही वह चक्र जिसने
क्रूरता के रूप कुत्सित
कंस या शिशुपाल की
ग्रीवा गिराई।
हम सदा से
इन ति-रंगों में
सजाए चक्र
हो निर्वैर
लड़ते हैं - अहिंसक,
और सारे शोक, पीडा़ को हराते
लौह-स्तम्भों पर
समर के
गीत लिखते,
जय-विजय के
लेख खोदें ;
हम
अ-शोकों के
पुरोधा हैं।