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चलते-चलते / कविता वाचक्नवी
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चलते-चलते
गली
बस्ती
मुहल्ले
सारा शहर
सारा देश
सो गया।
तहखाने से उठकर
दो पाँव
घूमते हैं-
गली
बस्ती
बाज़ार
अटारी
चौबारा
दालान
चबूतरा
चौपाल
सड़क
कमरे
पहाड़
हाट
जंगल।
भटकते हैं-
हरियाली
पानी
फूल
चहल-पहल
विश्रांति
जाने क्या-क्या खोजते।
दो पावों के ऊपर
सारी देह गायब है,
उजाले में
बाहर नहीं आ सकते।
बस
दो यायावरी पाँव
भटकते हैं इसीलिए
अंधेरे में
अकेले।