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सजल स्नेह का भूषण केवल / शमशेर बहादुर सिंह

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सजल स्नेह का भूषण केवल

सरल प्रेम की सुंदरता;

छिपी मर्म-सी कोमल

उर में सहज, मिलन की आतुरता ।


ओठों पर विषाद की दृढ़ता,

पलकों में आगत के प्रश्न;

साँसों में स्वर बढ़ता

करुणा का; अलकों में भावी स्वप्न ।


सहसा आ सम्मुख चुपचाप

संध्या की प्रतिमा-सी मौन

करती प्रेमालाप,

प्रेयसि नहीं, परिचिता-सी वह कौन ?


कर्मों की छाया-सी गूढ़

मन की गोचर स्त्रीत्व अतीत,

स्नेह रही है ढूँढ--

धूमिल-सी है यद्यपि स्नेह-प्रतीती ।


मेरे अंतर में भर जाती

केवल अपना करुणा-राग:

वह अजान सुलगाती

क्यों नव यौवन में अबोध वैराग ?


( १९३४ में लिखित )