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फल / मंगलेश डबराल

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वे फल टूटते नहीं

बाज़ार में बिकने नहीं आते

चौराहे पर सड़ते नहीं

कुछ छिपे कुछ ढंके

फूलों पत्तियों और छाल के रंगों में

काली-सफ़ेद धारियों में

वे रहते हैं अपने में परिपूर्ण अंतिम

फलों के आदि आकार

जिनसे तमाम फल लेते हैं अपना रूप

उनमें जीवित रहता है स्वाद और स्पर्श और प्रकाश

उन्हें छूने पर पूरा पेड़ काँपता है

उड़ती है एक आदिम महक एक सिहरन


(रचनाकाल : 1996)