भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दुरिहै क्यों भूखन बसन दुति जोबन की / केशव.
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:54, 15 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव. }} <poem> दुरिहै क्यों भूखन बसन दुति जोबन की , दे...)
दुरिहै क्यों भूखन बसन दुति जोबन की ,
देहहु की जोति होति द्यौस ऎसी राति है ।
नाहक सुबास लागे ह्वै कैसी केशव ,
सुभावती की बास भौंर भीर फारे खाति है ।
देखि तेरी सूरति की मूरति बिसूरति हूँ ,
लालन के दृग देखिबे को ललचाति है ।
चालिहै क्यों चँदमुखी कुचन के भार लए ,
कचन के भार ही लचकि लँक जाति है ।
केशव. का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।