कीकर / कविता वाचक्नवी
कीकर
बीनती हूँ
कंकरी
औ’ बीनती हूँ
झाड़ियाँ बस
नाम ले तूफान का
तुम यह समझते।
थी कँटीली शाख
मेरे हाथ में जब,
एक तीखी
नोंक
उंगली में
गड़ी थी,
चुहचुहाती
बूँद कोई
फिसलती थी
पोर पर
तब
होंठ धर
तुम पी गए थे।
कोई आश्वासन
नहीं था
प्रेम भी
वह
क्या रहा होगा
नहीं मैं जानती हूँ
था भला
मन को लगा
बस!
और कुछ भी
क्या कहूँ मैं।
फिर
न जाने कब
चुभन औ’ घाव खाई
सुगबुगाती
हाथ की
वे दो हथेली
खोल मैंने
सामने कीं
"चूम लो
अच्छा लगेगा"
तुम चूम बैठे
घाव थे
सब अनदिखे वे
खोल कर
जो
सामने
मैंने किए थे
और तेरे
चुम्बनों से
तृप्त
हाथों की हथेली
भींच ली थीं।
क्या पता था
एक दिन
तुम भी कहोगे
अनदिखे सब घाव
झूठी गाथ हैं
औ’
कंटकों को बीनने की
वृत्ति लेकर
दोषती
तूफान को हूँ।
आज
आ-रोपित किया है
पेड़ कीकर का
मेरे
मन-मरुस्थल में
जब तुम्हीं ने,
क्या भला-
अब चूम
चुभती लाल बूँदें
हर सकोगे
पोर की
पीड़ा हमारी?