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बाँहें / कविता वाचक्नवी
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बाँहें
कल्पवृक्ष की शाखा-सी
भुजा
होती यदि मेरी
कल्प-कल्पांतर में
काल के भाल को
अलकनंदा की गोद में भर
बना लेती अपना
रावी और ताप्ती के अजस्र प्रवाह में
पखार देती
काल के गतिमान पाँव।
कल-कल करती ब्रह्मपुत्र के
रूप विकराल में
कलि-काल
तिरती वांछाओं की छिदी नौकाएँ ले
ढूँढता दो हाथ वाली
मेरी बाँहें।