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मुक़्कम्मल जहाँ / मृत्युंजय प्रभाकर

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एक मुकम्मल जहाँ की तलाश में
दर-बदर
वह सब करते रहे
जो चलन था

मसलन
धरना, प्रदर्शन, आंदोलन
कविता, नाटक, गोष्ठी
आदि- आदि

हमें इस दुनिया का चलन
ठीक न लगता था
हमें कोफ़्त थी
हमारे होने से भी
अगर कुछ नहीं बदलता

एक मुकम्मल जहाँ के लिए
हम मुकम्मल बदलाव के हिमायती थे
इतना तो चाहते ही थे कि
भूखे को रोटी
बच्चों को स्कूल
हर हाथ को काम
किसान को खेत
मज़दूर को हक़
स्त्री को सम्मान
युवाओं को प्यार
मिलना चाहिए

हम तमाम महरूम लोगों से बावस्ता थे
अतः ख़ुद को भी महरूम बनाए रखा

अपने युवा दिन छत पर नहीं गुज़ारे
मेरी गली को मेरी आहट
तड़के सुबह और देर रात ही मिली
वह भी दिल के धड़कने से भी तेज़

अपने अफसानों को
सामाजिकता की...में गुलजार किया
ख़्याल था ‘अकेले का नहीे
मानवजाति का सवाल है’

इउ दरम्यान हमने ऐसा कुछ नहीं किया
जो दो वक़्त की रोटी
सर के लिए छत जुगाड़ सके

हम लड़ते रहे
वे ताकतवर होते रहे
लाख न चाहने के बावजूद
उनके किले हमारी
निजी ज़िन्दगियों में पसरते गए

जितना वक़्त
इस नामुरीद कविता को दिया
लोग छाप लेते हैं इतने में
हज़ारों डालर।