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रूपसि तेरा घन-केश-पाश / महादेवी वर्मा

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रूपसि तेरा घन-केश-पाश!

श्यामल श्यामल कोमल कोमल,

लहराता सुरभित केश-पाश!


नभ गंगा की रजत धार में,

धो आई क्या इन्हें रात?

कंपित हैं तेरे सजल अंग,

सिहरा सा तन है सद्य:स्नात!


भीगी अलकों के छोरों से

चूती बूँदें कर विधि लास!

रूपसि तेरा घन-केश-पाश!


सौरभ भीना झीना गीला

लिपटा मृदु अंजन सा दुकूल,

चल अंचल से झर झर झरते

पथ में जुगनू के स्वर्ण फूल,

दीपक से देता बार-बार

तेरा उज्जवल चितवन-विलास!

रूपसि तेरा घन-केश-पाश!

उच्छ्वसित वक्ष पर चंचल है

वक पाँतों का अरविन्द हार,

तेरी निश्वासें छू भू को

बन बन जाती मलयज बयार,

केकी रव की नुपूर ध्वनि सुन

जगती जगती की मूक प्यास!

रूपसि तेरा घन-केश-पाश!


इन स्निग्ध लटों से छा दे तन,

पुलकित अंकों में भर विशाल,

झुक सुस्मित शीतल चुंबन से

अंकित कर इसका मृदुल भाल,

दुलरा देना, बहला देना

यह तेरा शिशु जग है उदास!

रूपसि तेरा घन-केश-पाश!