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आनंद / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

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तब वृषभ सोमवाही भी

अपनी घंटा-ध्वनि करता,

बढ चला इडा के पीछे

मानव भी था डग भरता।


हाँ इडा आज भूली थी

पर क्षमा न चाह रही थी,

वह दृश्य देखने को निज

दृग-युगल सराह रही थी


चिर-मिलित प्रकृति से पुलकित

वह चेतन-पुरूष-पुरातन,

निज-शक्ति-तरंगायित था

आनंद-अंबु-निधि शोभन।


भर रहा अंक श्रद्धा का

मानव उसको अपना कर,

था इडा-शीश चरणों पर

वह पुलक भरी गदगद स्वर


बोली-"मैं धन्य हुई जो

यहाँ भूलकर आयी,

हे देवी तुम्हारी ममता

बस मुझे खींचती लायी।


भगवति, समझी मैं सचमुच

कुछ भी न समझ थी मुझको।

सब को ही भुला रही थी

अभ्यास यही था मुझको।


हम एक कुटुम्ब बनाकर

यात्रा करने हैं आये,

सुन कर यह दिव्य-तपोवन

जिसमें सब अघ छुट जाये।"


मनु ने कुछ-कुछ मुस्करा कर

कैलास ओर दिखालाया,

बोले- "देखो कि यहाँ

कोई भी नहीं पराया।


हम अन्य न और कुटुंबी

हम केवल एक हमीं हैं,

तुम सब मेरे अवयव हो

जिसमें कुछ नहीं कमीं है।


शापित न यहाँ है कोई

तापित पापी न यहाँ है,

जीवन-वसुधा समतल है

समरस है जो कि जहाँ है।


चेतन समुद्र में जीवन

लहरों सा बिखर पडा है,

कुछ छाप व्यक्तिगत,

अपना निर्मित आकार खडा है।


इस ज्योत्स्ना के जलनिधि में

बुदबुद सा रूप बनाये,

नक्षत्र दिखाई देते

अपनी आभा चमकाये।


वैसे अभेद-सागर में

प्राणों का सृष्टि क्रम है,

सब में घुल मिल कर रसमय

रहता यह भाव चरम है।


अपने दुख सुख से पुलकित

यह मूर्त-विश्व सचराचर

चिति का विराट-वपु मंगल

यह सत्य सतत चित सुंदर।


सबकी सेवा न परायी

वह अपनी सुख-संसृति है,

अपना ही अणु अणु कण-कण

द्वयता ही तो विस्मृति है।


मैं की मेरी चेतनता

सबको ही स्पर्श किये सी,

सब भिन्न परिस्थितियों की है

मादक घूँट पिये सी।


जग ले ऊषा के दृग में

सो ले निशी की पलकों में,

हाँ स्वप्न देख ले सुदंर

उलझन वाली अलकों में


चेतन का साक्षी मानव

हो निर्विकार हंसता सा,

मानस के मधुर मिलन में

गहरे गहरे धँसता सा।


सब भेदभाव भुलवा कर

दुख-सुख को दृश्य बनाता,

मानव कह रे यह मैं हूँ,

यह विश्व नीड बन जाता"


श्रद्धा के मधु-अधरों की

छोटी-छोटी रेखायें,

रागारूण किरण कला सी

विकसीं बन स्मिति लेखायें।


वह कामायनी जगत की

मंगल-कामना-अकेली,

थी-ज्योतिष्मती प्रफुल्लित

मानस तट की वन बेली।


वह विश्व-चेतना पुलकित थी

पूर्ण-काम की प्रतिमा,

जैसे गंभीर महाह्नद हो

भरा विमल जल महिमा।


जिस मुरली के निस्वन से

यह शून्य रागमय होता,

वह कामायनी विहँसती अग

जग था मुखरित होता।


क्षण-भर में सब परिवर्तित

अणु-अणु थे विश्व-कमल के,

पिगल-पराग से मचले

आनंद-सुधा रस छलके।


अति मधुर गंधवह बहता

परिमल बूँदों से सिंचित,

सुख-स्पर्श कमल-केसर का

कर आया रज से रंजित।


जैसे असंख्य मुकुलों का

मादन-विकास कर आया,

उनके अछूत अधरों का

कितना चुंबन भर लाया।


रूक-रूक कर कुछ इठलाता

जैसे कुछ हो वह भूला,

नव कनक-कुसुम-रज धूसर

मकरंद-जलद-सा फूला।


जैसे वनलक्ष्मी ने ही

बिखराया हो केसर-रज,

या हेमकूट हिम जल में

झलकाता परछाई निज।


संसृति के मधुर मिलन के

उच्छवास बना कर निज दल,

चल पडे गगन-आँगन में

कुछ गाते अभिनव मंगल।


वल्लरियाँ नृत्य निरत थीं,

बिखरी सुगंध की लहरें,

फिर वेणु रंध्र से उठ कर

मूर्च्छना कहाँ अब ठहरे।


गूँजते मधुर नूपुर से

मदमाते होकर मधुकर,

वाणी की वीणा-धवनि-सी

भर उठी शून्य में झिल कर।


उन्मद माधव मलयानिल

दौडे सब गिरते-पडते,

परिमल से चली नहा कर

काकली, सुमन थे झडते।


सिकुडन कौशेय वसन की थी

विश्व-सुन्दरी तन पर,

या मादन मृदुतम कंपन

छायी संपूर्ण सृजन पर।


सुख-सहचर दुख-विदुषक

परिहास पूर्ण कर अभिनय,

सब की विस्मृति के पट में

छिप बैठा था अब निर्भय।


थे डाल डाल में मधुमय

मृदु मुकुल बने झालर से,

रस भार प्रफुल्ल सुमन

सब धीरे-धीरे से बरसे।


हिम खंड रश्मि मंडित हो

मणि-दीप प्रकाश दिखता,

जिनसे समीर टकरा कर

अति मधुर मृदंग बजाता।


संगीत मनोहर उठता

मुरली बजती जीवन की,

सकेंत कामना बन कर

बतलाती दिशा मिलन की।


रस्मियाँ बनीं अप्सरियाँ

अतंरिक्ष में नचती थीं,

परिमल का कन-कन लेकर

निज रंगमंच रचती थी।


मांसल-सी आज हुई थी

हिमवती प्रकृति पाषाणी,

उस लास-रास में विह्वल

थी हँसती सी कल्याणी।


वह चंद्र किरीट रजत-नग

स्पंदित-सा पुरष पुरातन,

देखता मानसि गौरी

लहरों का कोमल नत्तर्न


प्रतिफलित हुई सब आँखें

उस प्रेम-ज्योति-विमला से,

सब पहचाने से लगते

अपनी ही एक कला से।


समरस थे जड‌़ या चेतन

सुन्दर साकार बना था,

चेतनता एक विलसती

आनंद अखंड घना था।