मैं अपने आप में सिमटूँ कि हर बशर में रहूँ
तलाश लूँ कोई मंज़िल कि रहगुज़र में रहूँ
इसी ख़याल में खोया हुआ हूँ मुद्दत से
गुलों के लब पे कि काँटों की चश्मेतर में रहूँ
गली में शोर है, आँगन में सर्द सन्नाटा
मैं कशमकश में हूँ, बाहर चलूँ कि घर में रहूँ
बड़ों के देख के हालात, हूँ मैं उलझन में
बना रहूँ यूँ ही गुमनाम, या ख़बर में रहूँ
पराग सोच रहा हूँ ये कैसे मुमकिन हो
कि अपनी बात भी कह लूँ मैं, और बहर में रहूँ