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जल रहा है / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

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जल रहा है इस तरह पूरा बदन

आग का जैसे किया हो आचमन


आप ये जो जुल़्म मुझ पर ढा रहे

बाइरादा हैं कि यूँ ही आदतन


वासनाएँ यदि न प्रतिबंधित हुईं

बेच डालेंगी प्रणय के आचारण


तुम विरह की पीर को झेले बिना

प्रीति का कैसे करोगे आंकलन


मुस्कुरा कर माँगना कुंडल-कवच

आज भी प्रचलित वही कल का चलन


पाप के फल भोगते बीती उमर

पुण्य के भी तो मिलें दो-चार क्षण


उम्र भर आलोचना करते रहे

आज अर्पित कर रहे श्रद्धा-सुमन


इन्द्रियाँ स्वच्छन्द सब सुख भोगतीं

दर्द से आहत मगर अन्त:करण


भक्त से जो बन पड़ा करता रहा

आप भी तो कुछ करो अशरण-शरण