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अख़बारवाला / रघुवीर सहाय

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लेखक: रघुवीर सहाय

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धधकती धूप में रामू खड़ा है

खड़ा भुलभुल में बदलता पाँव रह रह

बेचता अख़बार जिसमें बड़े सौदे हो रहे हैं ।


एक प्रति पर पाँच पैसे कमीशन है,

और कम पर भी उसे वह बेच सकता है

अगर हम तरस खायें, पाँच रूपये दें

अगर ख़ैरात वह ले ले ।


लगी पूँजी हमारी है छपाई-कल हमारी है

ख़बर हमको पता है, हमारा आतंक है,

हमने बनायी है

यहाँ चलती सड़क पर इस ख़बर को हम ख़रीदें क्यो ?

कमाई पाँच दस अख़बार भर की क्यों न जाने दें ?


वहाँ जब छाँह में रामू दुआएँ दे रहा होगा

ख़बर वातानुकूलित कक्ष में तय कर रही होगी

करेगी कौन रामू के तले की भूमि पर कब्ज़ा ।