भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पीर पराई / कविता वाचक्नवी

Kavita Kosh से
चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:04, 27 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता वाचक्नवी }} <poem> '''पीर पराई''' ड्यौढ़ी... कितने ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पीर पराई


ड्यौढ़ी...
कितने कदमों की भी रही होगी
पार की
और
लाँघ ली चौखट
विदाई की वेला।
उसी एक पल
उठा पैर
बाहर धरते ही
घर वह हुआ पराया।
लाँघ दहलीजें
पहुँची जिस घर,
वह तो बाबुला!
‘पराया घर’।
जैसे तुम्हारे लिए।
आत्मजा हूँ - तुम्हारी।
तुम न कहते थे
‘पराए घर’ जाना है
आज वहीं है
‘पराए घर’
आत्मजा तुम्हारी
‘बेटी-पराई’
‘पराया-धन’....।