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कालपुरुष / कविता वाचक्नवी

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कालपुरुष !


कालपुरुष !
तुम्हारे आँगन में
मेरी हँसी पर
जिस दिन
लगने लगे
प्रश्नचिह्न
तुमने कतूरे की तरह
कर दिया-पराई।

मुझे विदा कर
कच्चा दूध पीने वाली
भाभियों के सौभाग्य
और डोली को
हाथ से
आगे सरकाने वाले
भाई बन, तुमने
मान लिया बेगानी -
मैं मिट्टी की मूरत बना
कंधे लग
भीगती, भिगोती रही जड़ कंधे
थक-हार गई


आत्मीय प्रियतम बन
जानबूझ कर
सदा की तरह
तुम देर से आए
मेरे पराई
और परकीया होने के बाद।

फिर कालपुरुष!
सारा देय देकर भी तुम्हें
मैं रही - पराई ।
मैंने अपनी साँसें
कामनाएँ, अभिलाषाएँ, चाहतें
अपने प्राण, निवेदन, प्रणय
अपना मन, क्षण, रोम-रोम,
चीख पुकार, चिल्लाहटें,
आँसू - बूँद -बूँद
न्यौछार दिया
और तुम!
अपने पुरुष - बाने में
सदा - सदा
पराए रहे।

कालपुरुष ! सच में तुम
काल हो
पुरुष हो!