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माँ, यदि तुम होतीं... / कविता वाचक्नवी

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माँ, यदि तुम होतीं......



माँ!
यदि तुम होतीं,
ऊँची भट्ठियों में दहकती आग का धुआँ
गिरने देतीं मेरे आँगन में?
सारे विकराल स्वप्नों में घिर
सुबकने और चौंक कँपने देतीं मुझे?
धमनियों और शिराओं के
निरंतर बढ़ते नीलेपन के उभार
क्या तब भी
हथेलियाँ भींचते
यों ही दीखने लगते?
या तुम्हारे पास था कोई मंत्र
तुम्हारी देहगंध से फूटता?

क्या मैं दाँव पर लगा पाती
तब भी
अपना मातृत्व
अनिर्णय के हाथ देकर सारे पाँसे
या दलों के बीच बिछे चौसर पर
लाई जाती घसीट कर,
जिनके निर्वसन करने के नए तरीकों में
कृष्ण को पहले ही दे दिया जाता निर्वासन
या वे स्वयं यमुना-तट पर
गोपियों के वस्त्र छिपाते
प्रतीक्षा करते
मेरे शरणागत होने की?

और भी!
चक्रव्यूह से निकलने का उपाय
सुनने से पहले ही
अपने नींद में चले जाने का सच भी
न बतातीं तुम?

क्या यह संभव नहीं
व्यूह-मुक्ति की युक्ति
तुम्हारे हाथ देने में
डरते रहे हों पुरुष-श्रेष्ठ?
या युक्ति उस वेदमंत्र-सी थी
जो तुम्हारी नाल से भी बँधी
बेटियों के कान में
पिघला सीसा बन गिरता?


माँ! तुम होती
तो देखतीं
तुम्हारी असमय की नींद ने
कैसा घेरा है मुझे
बचने के उपाय न जानते हुए भी
लड़ना तो जानता था तुम्हारा पुत्र
लड़ कर मरा
पर माँ!
मेरी बार
रो कर सोई तुम।
तुम होती तो देखतीं
तुम्हारे ही
संस्कार लिए हैं मैंने भी।
तुम होतीं
तो पूछतीं
कायरों - सी बिन लड़े मारी जाऊँ?
अभिमन्यु का अंत देखने के बाद भी
व्यूह-मुक्ति की युक्ति न सुझातीं तुम?

और
कँपा देनेवाले भीषण तूफान से लड़ती
बूँदों के
बेतरतीब बिखर जाने का दंड
वर्षा को पाने देतीं?
कम-से-कम
उमसती पृथ्वी से
हरियाली बचाए रखने की आशा करतों पर
हँस तो देतीं तुम।

यदि तुम होती, तो!